जब चली द्रोपती रूप भयानक करकै

जब चली द्रोपती रूप भयानक करकै


भवे कुटिल लाल नेत्र खुले केस लटक रहे

मोटे मोटे होंठ खून पीवणे को भटक रहे 

लप-लप आई जीव दांत कडकड़ाये खटक  रहे 

बड़े-बड़े कान छिद्र गुफा सी बरस रही

असुरों को खावन की खातिर जैसे जीभ तरस रही 

चेहरा होरा सुर्ख़ क्रोध अग्नि सी बरस रही

विकराल कालका हुई एकदम जोश शरीर में भर के 

रै जब रूप भयानक करकै.....


अष्टभुजी देवी खप्पर ऊपर को उठा रही 

शंख चक्र खंडा गदा भाला भी घुमा रही

दो भुजा थी खाली उन्हें ऊपर को उठा रही

पंचानन पर बैठ गई शंख की आवाज करी

तीन लोग जाग गए बुकके की अंदाज करी

नागदेव किन्नर और असुरों की अग्गाज करी 

देव फूल बरसा वन लागे असुर भगन लगे डर के 

रै जब रूप भयानक करके.......


52 भैरव 56 कलवे, आए रूप धार धार 

भूत और पिशाच प्रेत करते आए मारा मार 

मांसाहारी जीव खावें अपनी त्वचा तार तार

करें हैं स्तुति देव दुष्टों की हननी तू है 

शक्ति का है रूप तेरा अग्नि से बननी तू है 

शिव देखें तमाशा तेरा फूलों से मननी तू है

आदि पुरुष के पास गई थी शक्ति खूब सिंगर के 

रै जब रूप भयानक करके.......


महलों से ले दरवाजे तक एक कन्नात तनी हुई 

लिखने में भी नहीं आती और बात घनी हुई 

गांव का रघुनाथ बात कविता अंदर बनी हुई 

कृष्ण जी का रूप शक्ति गौर से निहार रही 

मांगना है भात असली द्रोपती विचार रही 

कृष्ण जी भी डरे खड़े कालका किलकार रही 

करी स्तुति कृष्ण जी ने सर चरणों में धरके

रै  जब रूप भयानक करके.....

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